Soil Erosion And Soil Conservation In Hindi : भू -क्षरण एवं भू – संरक्षण उपाय , प्रकार,कारक ,जानिए विस्तार से

 भू-क्षरण का अर्थ ( Meaning of Soil Erosion)  

मृदा कणों का कटना ही भूमि कटाव ( भू- क्षरण )कहलाता है अर्थात्: मृदा कणों के पृथक्करण तथा परिवहन एवं अन्यत्र जमा होने को मृदा अपरदन या मृदा क्षरण कहते हैं।

 

भू क्षरण की परिभाषा निम्न प्रकार दे सकते हैं? ( Definition of Soil Erosion ) 

” किन्ही बाह्य शक्ति (जल, हवा, जीव जंतु,) द्वारा मिट्टी के कणों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने को बहुत भू – क्षरण कहते हैं। ” या भौतिक रूप से मिट्टी के कणों का अपने स्थान से हटने की क्रिया को भू – क्षरण या अपरदन कहते हैं। 

भू – क्षरण के कारण ( Causes of Soil Erosion)

1. वनों की कटाई ( Deforestation) 

वनों के कटाई के कारण वर्षा का जल सीधे भूमि के संपर्क में आता है जिससे मृदा के कण आसानी से वर्षा जल में घुलकर जल के साथ बहने लगते हैं। 

2. कृषि के गलत तरीके ( wrong method agriculture)

कृषि के गलत तरीके जैसे- ढलान वाले क्षेत्रों में गहरी जुताई  मेड़ों का निर्माण ढाल के अनुरूप ठीक प्रकार से ना होना मृदा की संरचना के अनुसार जुताई न करने के कारण वर्षा ,जल के कारण मृदा – क्षरण की संभावना बनी रहती है। 

3. स्थानांतरित खेती या झूम खेती ( shifting cultivation ) 

स्थानांतरित खेती का भी मृदा अपरदन पर प्रभाव पड़ता है एक स्थान पर अत्यधिक खेती करने से जब मृदा उर्वरता कम या समाप्त हो जाती है तब दूसरे स्थान पर खेती करना स्थानांतरित खेती या  झूम खेती ( Shifting Cultivation)कहलाता है। 

4. चरागाहों की समाप्ति ( destruction of pasture)

चरागाहों में उगी प्राकृतिक घास से मृदा क्षरण को रोकने में सहायक होती है चरागाहों की कमी के कारण वर्तमान में मृदा चरण की गति में वृद्धि हो रही है।

5. फसलों के अवशेष को जलाना 

कृषकों द्वारा फसल अवशेषों को जला देने से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की कमी हो जाती है तथा मृदा अच्छादन भी कम होता है जिससे मृदा अपरदन अधिक होता है।

मृदा अपरदन के प्रकार ( Types of soil Erosion) 

प्रकृति में दो प्रकार से मृदा क्षरण होता है: 

1.  प्राकृतिक क्षरण ( Natural Erosion) 

  • ​वनस्पति से ढकी हुई मृदा के प्राकृतिक रूप से हवा तथा जल द्वारा लगातार और धीरे-धीरे क्षरण को प्राकृतिक क्षरण कहते हैं। 
  • ​यह क्षरण मृदा निर्माण तथा मृदा विनाश की क्रिया को सदैव साथ रखता है।
  • ​इस मृदा अपरदन से कोई विशेष हानि नहीं होती है क्योंकि परिवर्तन में बहुत समय लगता है।

2.त्वरित क्षरण (Accelerated Erosion) 

  • ​यह मानव क्रिया द्वारा होता है जैसे वनों की कटाई भूमि की वनस्पति को पशुओं द्वारा चराकर खोदकर जोत कर समाप्त कर दिया जाता है जिससे भूमि वनस्पति विहीन हो जाती है। 
  • ​इस प्रकार वनस्पति विहीन भूमि का जल व वायु द्वारा चरण त्वरित क्षरण कहलाता है।
  • ​   यह  मृदा अपरदन सर्वाधिक नुकसानदायक होता है लेकिन इसे मनुष्य द्वारा रोका जा सकता है।

मृदा क्षरण के कारक 

  • मृदा क्षरण दो शक्तियों के द्वारा होता है जल( Water )तथा हवा (Wind) द्वारा होता है:

1.  वायु द्वारा क्षरण ( Wind Erosion) 

  • ​यह क्षरण शुष्क एवं अर्धशुष्क के क्षेत्र व्यर्थ या बंजर भूमि जो मुख्य वनस्पति विहीन है उन मृदाओं में सर्वाधिक होता है।
  • ​राजस्थान के उत्तरी व पश्चिमी क्षेत्र में मैं जून में तेज आंधियां चलने से सर्वाधिक वायु क्षरण होता है।

1. सतह सपर्ण ( Surface Creep) 

  • ​मृदा कार्ड जिनका व्यास 0.5 मि . मि .से अधिक होता है यह कण वायु की गति से ऊपर नहीं उठते हैं।
  • ​भूमि की सत्ता पर रेंगकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो जाते हैं इस क्रिया को सतह सपर्ण  ( Surface Creep ) कहते हैं।
  • ​मृदा  क्षरण का 5% से 25 % क्षरण इसी क्रिया द्वारा होता है।

2. उच्छलन ( Saltation) 

  • ​जब मृदा पर हवा का सीधा दबाव पड़ता है। 
  • ​ तो 0.1 से 0.5 मि . मि . व्यास वाले कार्ड अपने स्थान से ऊपर उछलते हैं और थोड़े चलकर गिर जाते हैं इस क्रिया को उच्छलन कहते हैं।
  • ​मृदा का 50 से 75 % वायु क्षरण इसी क्रिया से होता है।

3.निलम्बन ( Suspension) 

  • ​वह मृदा कण जिनके व्यास 0.1 मि.मि या इससे कम होता है।
  • ​यह हवा के द्वारा वातावरण में उड़ते रहते हैं जो हजारों किलोमीटर तक स्थानांतरित हो जाते हैं। 
  • ​इस क्रिया द्वारा कल वायु क्षरण का 3 से 4 प्रतिशत होता है। 

2. जल द्वारा क्षरण ( Water Erosion) 

जल क्षरण के निम्न अवस्थाएं होती है: 

1.  बौछार क्षरण ( Rain Drops/ Splash) 

  • यह मृदा क्षरण की प्रारंभिक अवस्था है। 
  • ​इसमें मृदा कण वर्षा बूंदों के प्रभाव से अपने मूल स्थान से टूटकर हट जाते हैं।
  • ​यह क्षरण वर्षा की बूंद के आकार गहनता व त्वरितता से होता है। 

2. परत  अपरदन (Sheet Erosion )

  • ​यह जल क्षरण की दूसरी अवस्था है।
  • ​उपजाऊ मिट्टी का सबसे ज्यादा अपरदन इसी से होता है क्योंकि मिट्टी की पतली परत नष्ट हो जाती है।
  • ​इस अपरदन को समतल अथवा चादर कटाव भी कहते हैं क्योंकि इस कटाव में भूमि की ऊपरी सतह की मिट्टी छोटे-छोटे कणों के द्वारा कट कटकर प्रति वर्ष बढ़ती रहती है जिसका किसान को भी आभास  तक नहीं हो पता है। 
  • ​भूमि के अधिकांश तत्व नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार यह कटाव अपेक्षाकृत अधिक हानिकारक होता है जिसकी रोकथाम अति शीघ्र करनी चाहिए।

3. रिल क्षरण (Rill Erosion) 

  • ​यह समतल कटाव का बड़ा हुआ रूप है।
  • ​जब पानी दल की और बहने लगता है तो खेत में छोटी-छोटी नालियां बन जाती है जो सामान्य कृषक क्रिया द्वारा समाप्त किया जा सकता है। 

4. अवनलिका अपरदन ( Gully Erosion) 

  • ​यह कटाव का सबसे बड़ा रूप है।
  • ​रिल क्षरण की   बढती अवस्था है 
  • ​जहां खेत में ढलान अधिक होता है वहां नालियां गहरी बड़ी व चौड़ी हो जाती है।
  • ​अवनलिका चरण जल द्वारा क्षरण की अवस्था में सबसे भयंकर या सर्वाधिक जल क्षरण की अवस्था है।
  • ​इसे अधो मृदा क्षरण भी कहते हैं या क्षरण राजस्थान में कोटा जिले के आसपास चंबल नदी के क्षेत्र में अधिक होता है।

(क ) आकार के अनुसार वर्गीकरण ( Classification According to Shape) 

 आकार  के अनुसार ये अवनलिका अपरदन निम्नलिखित दो प्रकार  की होती है: 

  1. ​U  आकार की 
  2. ​V आकार की  

U आकार की नालियों की अपेक्षा V आकर की नालियां अधिक हानिकारक होती है क्योंकि V आकार की नली में भूमि की ऊपरी उपजाऊ शक्ति तथा मिट्टी अधिक मात्रा में कट जाती है जबकि U आकार की नालियों में एक समान गहराई तक मिट्टी कट जाती है इस प्रकार यह नुकसान अपेक्षाकृत कम होता है। 

(ख) गहराई के अनुसार वर्गीकरण ( Classification According to Depth) 

गहराई के अनुसार इन बनी अवनलिकाओं को 3 उपवर्गों में बांटा गया है : 

1. छोटी अवनलिका ( Small Gullies) 

ऐसी बनी हुई गली की गहराई लगभग 1 मीटर तक होती है जिनका पटवाने में कम खर्च आता है।

2. मध्यम अवनलिका (Medium Gullies) 

ऐसी गली की गहराई 1 से 1.5 मीटर तक होती है। यह छोटी गली की अपेक्षा अधिक भराव खर्च आता है अतः यह छोटी गली का बड़ा हुआ रूप है क्योंकि मध्यम गली में मिट्टी पानी द्वारा अधिक मात्रा में कट जाती है। 

3. बड़ी अवनलिका ( Large Gullies) 

यह अवनलिका, मध्यम अवनलिका के विकसित होने से बनती है । इसका गहराई 1.5 मीटर से अधिक होता है । 

भू – क्षरण को रोकने के उपाय या भू -संरक्षण ( Control half soil erosion or soil conservation) 

  1. भूमि का काटना भू-क्षरण कहलाता है जबकि भू – क्षरण को रोकना या मिट्टी को काटने से रोकना हो संरक्षण (Soil Conservation) कहलाता है।  
  2. भू- संरक्षण के अंतर्गत भूमि को काटने से रोकना उसर या बंजर भूमियों का सुधार ऊंची-नीची भूमियों में पानी रोककर एकत्रित करना वृक्षारोपण आदि कार्य है यह सभी कार्य उन्नत कृषि पद्धतियों को अपनाकर पूरे किए जा सकते हैं ।
  3. वैसे भूमि कटाव को रोकने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों ने भू संरक्षण अनुसंधान केंद्र स्थापित कर रखे हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली ने केंद्रीय भूमि एवं जल संरक्षण अनुसंधान संस्थान देहरादून में खोल रखा है जिसके अंतर्गत देश में अन्य अनुसंधान केंद्र आते है, इन अनुसंधानों के आधार पर निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं जिनके आधार पर भूमि कटाव को रोका जा सकता है : 
  4. ​भूमि कटाओं को रोकने के लिए यह आवश्यक है की भूमि को नंगी ना छोड़ा जाए। 
  5. ​वर्षा के आरंभ में ही खेतों के चारों ओर उनकी मेड़बंदी भी कर दी जाए।
  6. ​वर्षा के पानी को तालाबों में एकत्रित किया जाए शुष्क खेती के अंतर्गत देश के पहाड़ी इलाकों ऊंची नीची भूमियों में ऐसे तालाब बनाकर पानी इकट्ठा कर लेते हैं जिसका उपयोग फसलों में किया जा सकता है ऐसा करने से जल द्वारा कटाव में कमी आती है।
  7. ​कंटूर कल्टीवेशन का प्रयोग किया जाए।
  8. ​ढालू या पहाड़ी इलाकों में सीढ़ीदार खेती की जाए।
  9. ​ढाल के विपरीत जुताई की जाए।
  10. ​सही फसल चक्र अपनया जाए तथा भूमि में जीवांश पदार्थ दिया जाए।
  11. ​एग्रो फॉरेस्ट्री ,ले(Ley) खेती,(Agro-pastoral )एग्रो हॉर्टिकल्चर (Agro Horticulture) आदि को शुष्क भूमि में अपनाया जाए।
  12. ​पाटीदार खेती (Strip Cropping) करना एक फसल की पट्टी ऐसी होती है जो भूमि खताओं को रोकते हैं जैसे अरहर अरंडी मूंगफली कहां से तथा दूसरी फसल की पट्टी भूमि कटाव को सहारा देने वाली फसल को रखते हैं जैसे मक्का ज्वार बाजरा आदि ।

मृदा संरक्षण की विधियां ( Method of Soil Conservation) 

जल अपरदन को रोकने की विधि : 

(अ) सस्य संबंधित विधियां ( Agronomical Method) 

1. समोच्च खेती ( Contour Farming) 

समान ऊंचाई की भूमि पर बनी हुई काल्पनिक रेखा को कंटूर कहते हैं।

​इसमें सभी कृषक क्रियाएं एवं फसल की बुवाई भूमि के ढाल के विपरीत करते हैं।

2. भू – परिष्करण ( Tillage) 

भू – परिष्करण की सही विद्या अपनाना जैसे : बारानी क्षेत्र में गहरी जुताई करना आदि ।

3. मल्चिंग (Mulching) 

इसमें घास फूल पत्तियों या पॉलीथीन के द्वारा खेतों को ढक कर रखते हैं।

4. फसल चक्र ( Crop Rotation) 

मृदा की उपयुक्त चक्र अपनाने से मृदा क्षरण कम होता है । 

5. पट्टियों में फसल बोना (Strip Cropping) 

  • ढाल के विपरित समानांतर पट्टियों में फसल बोना मृदा क्षरण को रोकता है।
  • इसमें अपरदन बढ़ाने वाली फसलों (मक्का,ज्वार,बाजरा) के साथ अपरदन को कम करने वाली फसलें (मूंग, चंवला, मोठ) एकांतर क्रम में उगाते है ।

(ख) मृदा संरक्षण की यांत्रिक विधियां 

1. कंटूर खाई बनाना (Contour Terrace) 

  • ढलान के अनुसार अलग -अलग क्यारियां बनाना ।
  • ढलान (Slope) 6% होता है ।
  • इससे खेत का अतिरिक्त जल बाहर निकालना।

2. जिंग टेरेस ( Zing Terrace ) 

  • यह 3 – 10% ढलान वाली भूमि में प्रयुक्त होती है। 
  • 60 से.मी. चौड़ी व 30 से.मी. गहरी तथा उपयुक्त लंबाई की खाई उचित अंतराल पर खोदी जाती है। 
  • इन खाइयों में पेड़ों की रोपाई की जाती है । 

3.बेंच टेरेस (Bench Terrace) 

  • यह 16 से 33% ढलान वाली भूमियों में अपनाते हैं।

4. ब्रॉड बेड एंड फरों (Broad Bed And Furrow) 

यह विधि गहरी काली कपास मृदाओं में सोयाबीन मूंगफली में प्रयुक्त होता है।

5. वानस्पतिक प्रतिरोध (Vegetative Barrier)

खस घास ,दूब घास आदि लगाकर मृदा अपरदन को कम किया जा सकता है।

6. एग्रो फॉरेस्ट्री (Agroforestry) 

  • कृषि फसलों के साथ में उद्यानिकी वानिकी वह झाड़ियां की खेती करना।

7. उर्ध्व मल्च (Vertical Mulch )

  • हल्की व गहरी कुएंनुमा खाई ढलान के विपरीत दिशा में बनाना ।
  • फसलें जैसें: कहवा,चाय, कॉफी, आदि बागानों में प्रयुक्त होती है।

8. अधो भूमि (Sub Soil) की गहरी जुताई 

सब सोयलर की सहायता से भूमि की कठोर परत को तोड़कर 30 सेंटीमीटर से गहरी (45 – 70 सेमी) जुताई करना चाहिए ।
 

वायु अपरदन को रोकने की विधियां 

  • वायु रोधी पट्टियों का निर्माण ।
  • हवा की दिशा के विपरीत भौतिक संरचना (विंड ब्रेक) एवं पौधों एवं झाड़ियां ( शेल्टर बेल्ट ) की पट्टियां लगाना ।

मिट्टी का जमाव (Deposition Of Soil ) 

  • किसी अन्य स्थान पर परिवहन मिट्टी के जमाव को Deposition Of Soil के नाम पर जाना जाता है ।
  • यह परिवहन स्रोत के आधार पर निम्नलिखित प्रकार का हो सकता है –
 
परिवहन प्रकार
ग्रेविटी(Gravity) Colluvial
जल जलोद ( Alluvial)
बर्फ(इस) ग्लेशियर
पवन Aeolian(रेतीली मिट्टी का जमाव)
पवन Loess (गाद मिट्टी (सिल्ट डिपॉजिट)
  1. मृदा अपरदन 12 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए जबकि भारत में यह 16 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है ।
  2. Wave Erosion : जल एवं वायु के संयुक्त प्रभाव से होने वाला अपरदन।
  3. Anthropogenic Erosion : मनुष्य के हस्तक्षेप से भूमि पर पशुओं की अधिक चराई से होता है । 
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